आजादी के 5 नायक:कई देश भटके नेता जी विदेश में जाकर बनाई फौज
देश को आजादी मिलने की प्रक्रिया कई स्टेप और लंबे उतार-चढ़ावों के बीच पूरी हुई है। ये क्रिकेट मैच जीतने जैसा आसान खेल नहीं था। ना ही एक चुनाव की जीत जैसा। लगभग 200 सालों तक अलग-अलग फ्रेम में भारत का स्वतंत्रता आंदोलन चलता रहा।
गुलामी की यह दास्ता ऐसे ही खत्म नहीं हुई। सैकड़ों लोग आजादी के इस संघर्ष में मारे गए। कुछ के नाम चर्चाओं में आए लेकिन कुछ बिना चर्चा के रह गए। वो सभी शहीद हमारे लिए उतने ही जरूरी हैं। पर ये पांच ऐसे नाम हैं जिनकी वजह से आजादी की राह आसान हुई। जानिए आजादी के इन पांच नायकों की कहानियां...
ये क्रांतिकारी मंगल पांडे थे जिन्होंने पहली बार किसी अंग्रेज को सीधे गोली मारी। उन्हें गिरफ्तार करने दूसरा अंग्रेज आगे बढ़ा तो उसे भी गोली मारी। तब बंदूक में एक के बाद एक गोली भरनी पड़ती थी। तीसरी गोली भर पाते तब तक पकड़ लिए गए। मुकदमा चला और बाद में फांसी हो गई।
मंगल पांडे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत 34वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री में एक सिपाही थे। मंगल पांडेय का विरोध कंपनी सेना में आई एक नई तरह की कारतूसों की वजह से हुआ था। ऐसे प्रमाण हैं कि इन कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी लगी हुई थी। कारतूसों को बंदूक में डालने से पहले मुंह से खोलना पड़ता था। गाय हिंदू के लिए पवित्र थी और सुअर मुसलमान के लिए हराम।
मंगल पांडे ने इस कारतूस को न सिर्फ खुद चलाने से मना किया बल्कि उन्होंने बाकी हिंदुस्तानी सिपाहियों को भी इसे न प्रयोग करने के लिए ललकारा। कंपनी को यह बगावत नगवार गुजरी। हुक्म हुआ कि मंगल पांडेय के हथियार छीनकर उन्हें कंपनी ने बाहर किया जाए। 29 मार्च सन 1857 को उनकी राइफल छीनने के लिये आगे बढे अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण करने से पहले मंगल ने अपने अन्य साथियों से समर्थन का आह्वान भी किया था पर डर के कारण जब किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया तो उन्होंने अपनी ही रायफल से उस अंग्रेज अधिकारी मेजर ह्यूसन को मौत के घाट उतार दिया जो उनकी वर्दी उतारने और रायफल छीनने को आगे आया था।
इसके बाद पांडे ने एक और अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेन्ट बॉब को भी मार दिया। मंगल पांडेय गिरफ्तार किए गए। उन पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाकर 6 अप्रैल 1857 को फांसी की सजा सुना दी गयी। फैसले के अनुसार उन्हें 18 अप्रैल 1857 को फाँसी दी जानी थी, पर ब्रिटिश सरकार ने मंगल पाण्डेय को निर्धारित तिथि से दस दिन पूर्व ही 8 अप्रैल सन् 1857 को फाँसी पर लटका दिया।
इसके बाद क्या हुआ
मंगल पांडे ने अंग्रेज सैनिकों की हत्या की इससे यह संदेश गया कि उन्हें मारा जा सकता है। उनकी नीतियों का विरोध किया जा सकता है। उनका फैसले पलटने की आवाज उठाई जा सकती है। इसके बाद विरोध की यह आग तेजी के साथ पूरे देश में फैली। अंग्रेजों को अपने नियम बदलने पड़े। एक महीने बाद ही 10 मई 1857 को मेरठ की छावनी में बगावत हो गयी। बाद में कई और जगहों पर अंग्रेज सेना को बगावत का सामना करना पड़ा। झांसी और कानपुर में इसके बाद विरोध की आग तेज हुई।
भगत सिंह सिर्फ 23 साल जिंदा रहे। 23 साल की उम्र में उनके काम ब्रिटिश सेना के पैर भारत से उखाड़ने वाले रहे।
वे 21 साल के थे जब साइमन कमीशन भारत आया। लाला लाजपत राय इस विरोध की अगुवाई कर रहे थे। एक प्रदर्शन के दौरान सड़क पर एक अंग्रेज अधिकारी ने पीट-पीटकर लाला साहब की हत्या कर दी। भगत इस घटना से इतने आक्रोशित हुए कि उन्होंने राजगुरु और जयगोपाल के साथ मिलकर उस अंग्रेज अधिकारी जॉन सैंडर्स की हत्या कर दी। अंग्रेज सरकार को यह कल्पना नहीं थी कि ऐसा हो सकता है।
भगत सिंह ने पूर्ण स्वराज का नारा दिया। उनकी आवाज को गंभीरता से लिया जाए इसके लिए उन्होंने संसद के केंद्रीय कक्ष में बम फेकने का काम किया। यह साल 1929 था जब उन्होंने राजगुरु और सुखदेव के साथ ऐसी जगह पर धुएं वाले बम फेंके जहां बम की वजह से किसी को नुकसान ना पहुंचे। बम फेंकने के बाद भगत सिंह भागे नहीं बल्कि उन्होंने "इंकलाब-जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद" के नारे लगाए और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाले।
इस घटना के बाद भगत सिंह और उनके साथियों पर मुकादमा चला। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दे दी गई। भगत सिंह की फांसी में महात्मा गांधी की भूमिका को कुछ इतिहासकार संदेह की निगाह से देखते हैं। उनका मत है कि यदि गांधी सक्रियता के साथ प्रयास करते तो भगत सिंह की फांसी को टाला जा सकता था।
इसके बाद क्या हुआ
आजादी की लड़ाई लड़ने का एक तरीका गांधीवादी था। भगत सिंह ने उसमें आक्रामकता पैदा की। सरेआम अंग्रेज अधिकारी को गोली मार देना ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खुला मोर्चा खोलना था। इस घटना के बाद आक्रामक नवयुवकों की एक बड़ी फौज तैयार हुई। जो भगत सिंह की राह चलने को तैयार थी। अंग्रेजों का विरोध जो नीतियों के स्तर पर हो रहा था अब वह जान-माल नुकसान के रूप में पहुंच गया था। जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहे।
सिविल सेवा में चुने जाने और नौकरी को ठुकारने के बाद बोस जिस जहाज से विदेश से वापस भारत आ रहे थे उस जहाज में उनकी मुलाकात रवींद्र नाथ टैगोर से हुई थी। टैगोर से उन्हें गांधी से मिलने की सलाह दी वे गांधी से मिले भी। लेकिन गांधी से उनकी निभी नहीं।
बोस और गांधी का यह वैचारिक विरोध इतना बढ़ा कि जब 1938 में बोस कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए तो गांधी ने यह कहकर उनका विरोध किया कि ये चुनाव फिर से होने चाहिए। बोस कांग्रेस से अलग हुए और एक नई पार्टी बनाई।
अंग्रेजों को कमजोर करने के लिए सुभाष ने उन सभी देशों से संपर्क साधा जो इंग्लैंड या मित्र देशों के विरोधी थे। वे जर्मनी गए, हिटलर से मिले। यह द्धितीय विश्वयुद्ध के शुरु होने के ठीक पहले का समय था। भारत के पक्ष में कई देशों को लामबंद करने के लिए उन्होंने जर्मनी के बाद उन्होंने पूर्वी एशिया के देशों में यात्राएं की। सिंगापुर और जापान की सरकार से उन्हें सहयोग मिला। 21 अक्टूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गये।
आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को भर्ती किया था।नेताजी ने अनेक भाषण देकर वहाँ के स्थायी भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद देने का आवाहन किया। उन्होंने अपने आवाहन में यह सन्देश भी दिया - "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।" यह संदेश आजादी की लड़ाई में लोगों की जुबां पर चढ़ गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने दिल्ली चलो का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। यह द्वीप आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द के अनुशासन में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को "शहीद द्वीप" और "स्वराज द्वीप" का नया नाम दिया।
इसके बाद क्या हुआ
नेताजी की वजह से अंग्रेजों पर एक ग्लोबल दबाव बना। अंग्रेजों से लड़ने की उनकी स्टाइल आक्रामक होने के साथ कूटनीतिक थी। वह उन देशों को भारत के पक्ष में लेकर आए जो इंग्लैंड के विरोधी थी। भारत के आजादी के संघर्ष को एक ग्लोबल पहचान सुभाष चन्द्र बोस के प्रयासों से ही मिली। नेता जी मौत को लेकर एक रहस्य है। अगस्त 1945 के बाद नेताजी को नहीं देखा गया।
जवाहर लाल नेहरु धनाढय वकील और कांग्रेसी नेता मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे। विदेश से वकालत की पढ़ाई करने के बाद जब वे भारत लौटे तो देश में महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन से जुड़ गए। नेहरू ने कांग्रेस में रहकर पूर्ण स्वतंत्रत की मांग की।
नेहरू देश में अंग्रेजों का विरोध करने वाले नेतृत्व दल का चेहरा बने। 1920 में वे गिरफ्तार हुए। जेल में रहे। उन्होंने अंग्रेजों से लड़ रही पार्टी कांग्रेस को एक मजबूती प्रदान करने का काम किया। जब ब्रिटिश सरकार ने भारत अधिनियम 1935 बनाया तो कांग्रेस पार्टी ने पूरे देश में चुनाव लड़ने का फैसला लिया। स्वतंत्रता पूर्व नेहरू का बड़ा योगदान 1942 में शुरू हुए भारत छोड़ों आंदोलन के समय रहा। ब्रिटिश सरकार से सत्ता के हस्तांतरण में नेहरू सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरे।
2 सितम्बर 1946, को नवनिर्वाचित संविधान सभा ने भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया जोकि 15 अगस्त 1947 तक अस्तित्व में बनी रही। नेहरू ने इस सरकार का नेतृत्व किया। अंग्रेजों द्वारा सत्ता भारत को सौंपने की तैयारी होनी शुरू हो चुकी थी। आजादी के बाद देश कैसे चलेगा इसे समझने और उसे अमली जामा पहनाने में नेहरू का रोल क्रमश: बढ़ता गया। आजादी और पाकिस्तान के बंटवारे के मामलों में नेहरू की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।
देश के आजाद होने के बाद वे देश के पहले प्रधानमंत्री बने और एक नए-नए लोकतांत्रिक देश के प्रथम मुखिया होने का कर्तव्य सूझबूझ के साथ निभाया। नेहरू के पंचशील सिद्धांत, पंचवर्षीय योजनाएं और योजना आयोग का गठन नेहरू के महत्वपूर्ण फैसलों में शुमार होता है।
नेहरू की वजह से क्या हुआ
नेहरू की वजह से कांग्रेस को एक बड़ा चेहरा मिला। ऐसा माना जाता है कि नेहरू को सरकार और सत्ता चलाने की बेहतर समझ थी। देश से जब अंग्रेज जा रहे थे तो भारत आगे कैसे चलेगा इसका एक बेहतर विजन जवाहर लाल नेहरु के पास था। आजादी के बाद बनाई गईं नेहरु की योजनाओं ने अभी अभी स्थापित हुए देश को स्थापित करने में मदद की।
1914 में गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौट आये। वह उदारवादी कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर भारत आये थे और शुरुआती दौर में गाँधी के विचार बहुत हद तक गोखले के विचारों से प्रभावित थे। प्रारंभ में गाँधी ने देश के विभिन्न भागों का दौरा किया और राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को समझने की कोशिश की।
गांधी जी ने अपने अहिंसात्मक मंच को स्वदेशी नीति में शामिल करने के लिए विस्तार किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। इससे जुड़ने वाली उनकी वकालत का कहना था कि सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे अपने लोगों द्वारा हाथ से बनाई गई खादी पहनें। यह विचार अंग्रेजों पर निर्भरता खत्म करने के साथ भारतीयों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए थे।
गांधी जी ने मार्च 1930 में नमक पर कर लगाए जाने के विरोध में नया सत्याग्रह चलाया। नमक आंदोलनमें 400 किलोमीटर तक का सफर अहमदाबाद से दांडी, गुजरात तक चलाया गया ताकि स्वयं नमक उत्पन्न किया जा सके। समुद्र की ओर इस यात्रा में हजारों की संख्या में भारतीयों ने भाग लिया। भारत में अंग्रेजों की पकड़ को ढीला करने के लिए यह सबसे आंदोलन था। इस आंदोलन के दौरान करीब 80 हजार लोगों ने अपनी गिरफ्तारी दी। इस आंदोलन की वजह से देश में अलग अलग जगहों पर हो रहे संघष को एक आवाज मिली।
गांधी सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ नहीं लड़ रहे थे। आजादी के पहले वाले भारत में जाति पात, छूआछूत जैसी संकीणर्ताएं अपनी चरम पर थीं। गांधी का संघर्ष इनके खिलाफ भी उतना ही प्रबल था। देश में चल रहे छूआछूत को खत्म करने के लिए उन्होंने दलितो को नया नाम हरिजन दिया। भीमराव अंबेडकर के साथ उनका इस मसले पर वैचारिक मतभेद सर्वविदित है।
आजादी की लड़ाई के पूरे संघर्ष के साथ साथ बंटवारे की भी प्रष्ठभूमि तैयार करने में गांधी की महती भूमिका रही है। हालांकि गांधी बंटवारे के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे। बंटवारे के कई सारे कोण थे। सबके अपने अपने नजरिए। गांधी का नजरिया इस पूरी कवायाद में फिट नहीं बैठ रहा था। बंटवारे के बाद भी पाकिस्तान के प्रति एक नरम रवैय्या गांधी की हत्या की एक वजह के रुप में देखा गया।
क्या हुआ गांधी की वजह से
गांधी ना सिर्फ अंग्रजों से लड़े बल्कि देश में आपस में जाति और धर्म को लेकर चल रहे टकरावो को कम करने की कोशिश की। गांधी अंग्रेजों से लड़ने के लिए भारतीय प्रयासों का प्रमुख चेहरा बने। उनके आंदोलनों से देश जुड़ा। आजादी की यह लड़ाई राजनीतिक न होकर सामाजिक बनी। उनके आंदोलनों ने अंग्रेजों की नाक में दम तो की ही सुस्त पड़े लोगों को सचेत करने का भी काम किया। उन्होंने भारत में हिंदु मुसलमान जैसे धार्मिक अंतर को पाटने की कोशिश की।

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